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Friday 4 February 2011

मिस्र में जनतांत्रिक विद्रोह, क्रान्तिकारी कवि पाश की कविता के साथ

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से जिंन्दगी का सफर शुरू होता है
जिनका पसीना और लहू मिट्टी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं
अरब  में इन दिनों एक अपूर्व उथल-पुथल दिखाई दे रही है। ट्यूनीशिया में जन विद्रोह के कारण 23 सालों से सत्ता पर काबिज जिने अल अबेदीन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा। मिस्र, यमन, जार्डन में भी लगातार विरोध प्रदर्शन  हो रहे हैं। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद से तंग आकर ही लोग सड़कों पर उतरे है।
इस लहर की शुरुआत ट्यूनीशिया में 17 दिसंबर को मुहम्मद बाउजिजी नाम के एक बेरोजगार ग्रेजुएट नौजवान को पुलिस द्वारा सब्जी बेचने की इजाजत न देने से हुई। जिसके बाद से पूरे अरब में तानाशाही के विरोध का प्रतीक बन चुका है। ट्यूनीशिया से उड़ी चिंगारी, अब मिस्र में आग लगा चुकी है। 
मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने अक्टूबर 1981 में अनवर सादात की हत्या के बाद ये गद्दी संभाली थी और तीन दशक से लगातार इस पर काबिज है। ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति बेन अली की तरह वे भी अपने बेटे को अपनी कुर्सी सौपने के ख्वाहिशमंद रहे है। मुबारक के नेतृत्व में मिस्र राजनीति रूप से अमेरिकी कठपुतली बन गया है। जिससे इसका आक्रोश लोगों में और ज्यादा है।
मुबारक के खिलाफ भड़की बगावत की अगुवाई करने के इरादे से वतन लौटे अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजंसी  के पूर्व अध्यक्ष और शांति  नोबेल सम्मान से विभूषित मोहम्मद अल बरदेई को नजरबंद कर दिया गया है। मिस्र में भड़का यह जनाक्रोष इस्लामी विद्रोह नहीं है बल्कि महंगाई, बेरोजगारी, निरक्षरता, अमीरी-गरीबी के बीच की बढ़ती खाई और तानाशाही शासन के खिलाफ बेबस जनता की मुखर आवाज है। 1981 से राष्ट्रपित हुस्नी मुबारक का राज  है। वैश्विक वित्तीय संकट के कारण देश में पर्यटन उद्योग, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और स्वेज नहर से होने वाली आय में गिरावट आयी है। लोग काफी संख्या में शिक्षित है लेकिन रोजगार के साधन का अभाव है। मिस्र में 2008 से 2010 तक बेरोजगारी दर 9 से 9.4 फीसदी के बीच है जबकि 2007 में यह 10.30 फीसदी रही थी। 2008 से 2010 तक महंगाई दर 12 से 19 फीसदी के बीच रही।
मुबारक 82 साल के हो गए हैं और उनके सहयोगी पहले से ही इस पर विचार कर रहे थे कि उनके बाद कौन आयेगा। जो नाम सामने आ रहे थे वे मुबारक के बेटे जमाल और खूफीया के प्रमुख जनरल उमर सुलेमान के थे। मुबारक के बाद जनरल उमर सुलेमान मिस्र के सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं। लेकिन मिस्र की जनता इन दोनों से भी नफरत करती है। सत्तारूढ़ पार्टी के बाद देश में एकमात्र संगठित राजनीतिक संगठन व विपक्षी पार्टी ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ है। 1928 में जब मिस्र में सैन्य कब्ज़ा हो रहा था तो उसके विरोध में मुस्लिम ब्रदरहुड अस्तित्व में आया था. जिहादियों से विपरीत मुस्लिम ब्रदरहुड एक रूढ़िवादी नरमपंथी और अहिंसक गुट है। फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि इस जन विरोध के नायक मोहम्मद अल बरदेई होंगे या मुस्लिम ब्रदरहुड। लेकिन यह मिस्र मे एक सकारात्मक बदलाव है।

Thursday 27 January 2011

लोकतंत्र का मुखौटा बनती न्यायपालिका

बोल की लब आजाद हैं तेरे/बोल जबां अब तक तेरी है, तेरा सुतंवा जिस्म है तेरा/बोल कि जां अब तक तेरी है। फैज की इन पंक्तियों में एक जोश  और अभिव्यक्ति की ताकत का अन्दाजा लगता है। एक ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंन्त्रता जिस पर आज सरकार प्रत्यक्षय या परोक्ष रूप से पाबंदियां लगाने का अनवरत प्रयास कर रही है और यह कोशिस उन मासूम आदिवासियों और शोषित वर्ग के खिलाफ कर रही है, जिनको इस अभिव्यक्ति की जरूरत सबसे ज्यादा है न कि उस पूंजीवादी समाज व ग्लोबल गांव के देवताओं को, जो अपनी बात किसी भी तरीके से मनवा लेते है। ऐसे ही कुछ हालात छत्तीसगढ़ में देखने को मिले हैं। जहां पर इन गरीब व शोषित आदिवासियों  की मदद करने वालों को आतंकी घोषित कर देशद्रोह
का आरोप लगा उन्हें जेल में कैद कर दिया जाता है।
रायपुर की अदालत ने 24 दिसम्बर 2010 को आईपीसी की धारा 124ए के तहत विनायक सेन को रास्टद्रोह का दोषी  मान आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर कर दी। डा0 विनायक सेन पर भाकपा माओवादी की मदद करने का आरोप पुलिस ने कथित नक्सली नेता नारायण सान्याल के जेल में मिलने के आधार पर लगाया है। जबकि डा0 विनायक सेन ने मानवाधिकार संस्था पीपुल्स यूनियन फॉर  सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष रहते हुए जेल में बंद आरोपी के स्वास्थ कारणों से भेंट की थी जो कि जेल अधीक्षक की उपस्थिति में होती थी। अभियोजन पक्ष के वकील अदालत में कार्ल मार्क्स के दास कैपिटल को दुनिया की सबसे खतरनाक किताब होने की दलील देते हैं और डा0 विनायक सेन पर राजद्रोह और साजिश  रचने का आरोप लगाते हैं। ऐसी ही कुछ बेतुकी दलील दे देकर उन्हें राजद्रोही घोषित कर दिया जाता है। यह दलीले तो सिर्फ एक बहाना मात्र जान पड़ती है। जो किसी लोकतांत्रिक देश  में न्यायिक प्रक्रिया को लोकतांत्रिक मुखौटा लगाये रखने में मद्द करती है, लेकिन इसकी पीछे की कहानी पूंजीपति वर्ग लिखता है। जिसके अधीन ये मुखौटे काम करते है
बीती चार जनवरी को 61 साल के हुए सेन 30 साल पहले प्रतिस्ठित वेल्लोर मेडिकल कॉलेज से गोल्ड मेडल लेने के बाद आदिवासियों के बीच काम करने के लिए छत्तीसगढ़ आये थे। अमेरिका में दमक भरी नौकरी का विकल्प छोड़कर उन्होंने दिग्गज मजदूर नेता शंकर  गुहा नियोगी के साथ काम करना शुरू  किया। सेन ने बिना कोई सरकारी मदद लिए खदान मजदूरों के सहयोग से दल्लीराझरा में शहीद  अस्पताल की नींव रखी। 1990 में वे रायपुर में अपनी पत्नी इलिना से मिले। यहां उन्होंने अपने गैरसरकारी संगठन रूपातंर की शुरुआत  की। पिछले 18 सालों से यह संस्था ग्रामीणों और आदिवासियों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के साथ-साथ मोबाइल चिकित्सालय भी संचालित कर रही है।
भारत सरकार ने चेतावनी दी है कि माकपा माओवादी या उसके किसी भी अन्य संगठन का यदि कोई समर्थन करता है तो उसे गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून 1967 यूएपीए की धारा 139 के तहत 10 साल की कैद हो सकती है, लेकिन विनायक सेन पर लगाया गया देशद्रोह  का आरोप किस कानून के दायरे में आता है। जिन्हें सिर्फ आदिवासियों व शोसितो  की सेवा के जुर्म में देशद्रोही घोषित  कर दिया गया। छत्तीसगढ़ में डा0 विनायक सेन की आवाज को दबाना इसलिए जरूरी समझा जाता है कि उनकी सच्चाई की आवाज से कही सलवा जुडूम जैसी सरकारी संरक्षण प्राप्त गिरोह को कोई नुकसान न हो। न्यायालय द्वारा इस तरह का फैसला देना न्याय को पुनः परिभाषित  करने पर मजबूर करता है। आखिर न्याय किसके साथ किया जा रहा, सत्ताधीन पूंजीपतियों के साथ या शोषित  आदिवासियों के साथ।
बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधती रॉय को उनके अभिव्यक्तिपूर्ण बयान पर देषद्रोह कर आरोप झेलना पड़ा। इससे पहले अमिताभ बच्चन जब नरेन्द्र मोदी के रहने पर गुजरात के ब्राण्ड अम्बेसडर बनते हैं, रतन टाटा और मुकेष अंबानी से तब कितने लोगों ने सवाल किया जब इन्होंनें गुजरात गरिमा पुरस्कार प्राप्त किया। नरेन्द्र मोदी का नाम आते  ही हमारे सामने 2002 में हुए गुजरात दंगे की भयानक तस्वीर हमारे सामने आ जाती है। जिसमें गर्भवती महिला का पेट फाड़ कर उसमें कपड़ा भर दिया जाता है।  लेकिन शायद  यह मुर्दों का शहर  है। ऐसा शहर  दुष्यन्त कुमार के पक्तियों की याद दिलाते है जिसमें उन्होंने कहा है  ‘‘इस शहर  में कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़किया।’’ 

Thursday 9 December 2010

धारावाहिकों का सफरनामा

उत्तर भारत का मध्यवर्गीय परिवार और उस परिवार में बसेसर राम का चरित्र आज भी लोगों को याद है। धारावाहिक के अन्त में दादा मुनि अशोक कुमार का एक खास अन्दाज में लोगों को सन्देश  देना भला कोई कैसे भूल सकता है। जी हां मैं बात कर रहा हूं ‘हम लोग’ धारावाहिक की जहां से टीवी धारावाहिकों का सिलसिला शुरू  होता है और आज एकता कपूर के ‘क’ अक्षर के धारावाहिकों के सैलाब के रूप में हमारे सामने है।
80 के दशक  में जितने  भी धारावाहिक बने उनमें ज्यादातर  की पटकथा आम  लोगों के जिन्दगी से जुड़ी हुई होती थी। महिलाओं की सामाजिक भूमिका को नए रूप में परिभाषित करती ‘रजनी’, बटंवारे का दर्द बयां करता बुनियाद, दिन में सपने देखता मुंगेरीलाल और जासूसी धारावाहिक करमचंद में पंकज कपूर का डायलॉग ‘शक  करना  मेरा पेशा  है’ वर्षों तक याद किया गया। पंकज कपूर द्वारा अभिनीत ‘मुसद्दीलाल’ के चरित्र ने ‘आफिस-आफिस’ धारावाहिक की सफलता के नये आयाम गढ़े।
सन् 1989 में दूरदर्शन ने दोपहर की सेवा आरम्भ की। इस दौरान गृहणियों को दर्शक मानकर स्वाभिमान, स्वाति, जुनून धारावाहिक प्रसारित किये गये। एक तरह से यह देश  में उदारीकरण का दौर था। मीडिया ने भी समाज के सम्पन्न वर्ग को ध्यान में रखकर धारावाहिकों के निर्माण पर बल दिया। नीरजा  गुलेरी निर्मित धारावाहिक ‘चन्द्रकान्ता’ ने भी सफलता में इतिहास रचा।
सन् 1992 में देश का पहला निजी चैनल जी-टी.वी. दर्शकों को उपलब्द होने लगा। इस पर प्रसारित ‘तारा’ नामक धारावाहिक चर्चा का विषय बना। तारा की भूमिका निभाने वाली नवनीत निशान ने नारी की परम्परागत छवी को तोड़कर नये कलेवर में पेश किया। इसके बाद व्योमकेष बख्शी, तहकीकात, राजा और रैंचो, नीम का पेड़, अलिफ लैला आदि उल्लेखनीय धारावाहिक है।
महाभारत में भीष्म की भूमिका से चर्चित मुकेष खन्ना द्वारा अभिनीत धारावाहिक ‘शक्तिमान’ में देशी सुपरमैन के तड़के को बच्चों ने खूब पसन्द किया। जुलाई 2000 को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ का प्रसारण शुरू  हुआ। इस धारावाहिक को महिलाओं के बीच  काफी सफलता मिली। एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज टटोलते हुए मैट्रो शहर  की महिलाओं पर केन्द्रित धारावाहिक बनायें, जिनमें महिलायें हमेशा  महंगी, डिजाइनर साड़ियों और गहनों से लदी हुई तैयार रहती है। इन धारावाहिकों को सनसनीखेज और रोचक बनाने के लिए एक नकारात्मक चरित्र भी डाला गया। पायल, पल्लवी, देवांषी और कमोलिका के रूप् में टी.वी. की ये खलनायिकाएं अपनी कुटिल मुस्कान, साजिशों और जहरीले संवाद के कारण लोकप्रिय हुई। टी.आर.पी. मद्देनजर चरित्रों को पुनः जीवित करना एकता कपूर के धारावाहिकों की खासियत रही है।
सन् 2006 में धारावाहिकों ने क्षेत्रीय परम्परागत पृष्टभूमि को अपनाया। कहानियों में थोड़ा सा देशी और स्थानीय आकर्षण पैदा करने की कोशिस की गयी। इनमें मायका (पंजाबी), सात फेरे (राजस्थानी), करम अपना-अपना (बंगाली) जैसे इन्डियन धारावाहिक काफी चर्चित रहे।

Thursday 22 July 2010

बूंद की दस्तक

सुबह आख खुली तो लगा
किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी हो
दरवाजा खोला तो पाया
बारिश की बूंदे अपने साथ
खेलने के लिए बुला रही है
मेरे अल्हड से अलसाये से मन को
मानो ख़ुशी का इक पयाम सा मिल गया हो
मै भी उनके साथ हो लिया
कभी उन्हें  अपनी हथेलियों पर बसा लेता
कभी वो मेरी पलकों पर आकर
मेरी पलकों को बंद करने पर अमादा होती
नीचे गिरती हुई बूंदों को देखा
लगा जैसे आसमान से सरे तारे
जमी  पर आकर टिमटिमाने लगे हो
उनमे उठती हुई छोटी छोटी लहरे
एक दूसरे से मिलने के लिए बेताब हो
फूलो पर पड़ी बूंदों को देखकर ऐसा लगा
मनो किसी सुहागन ने बिंदी लगायी  हो
आसमान की तरफ आखे उठा कर देखा
कितनी दूर से चली आ रही है मेरे पास
शायद ये मेरे लिए आयीं है
साथ में कुछ संदेसा भी लायी है
एक बूंद ने मेरे कान में इठला के कहा
मुझे संभाल कर रखना अपने पास
वरना अगले बरस हम न आयेगे

Friday 28 May 2010

इक हमराही....


रात दिन चलता है राही मंजिल की चाह में   कभी अकेले कभी साए के साथ में
जब मिल जाता है उसे कोई हमराही
तब लगता है रास्ता नहीं मंजिल है यही
भूल जाता है जिन्दगी की सब तलातुम
खो जाता है इक हसींन सफ़र में
लेकिन वह भूल जाता है की यह भी
हमारी तरह ही इक राही है
उसकी भी कुछ मंजिल है कुछ सपने है
जो उसकी जिन्दगी है उसके अपने है
हम चाह कर भी उसे अपना बना नहीं पाते
वो तो बस कुछ पल का साथी है
लेकिन यही कुछ समय का सफ़र
कभी किसी मुसाफिर के लिए
पूरी जिन्दगी ही बन जाता है
फिर भी वह अकेला ही जिन्दगी की राह में
चलता जाता है क्योकि मुसाफिर है वह
चलना ही है उसका काम है
तुम भी चल रहे हो, मै भी चलूगा....सब चलेंगे

Thursday 18 February 2010

लोकतंत्र पर मोदी की मार

रोज की तरह अखबार पड़ते हुए मेरी नजर एक लेख पर गई. यह लेख नरेन्द्र मोदी द्वारा गुजरात के स्थाई निकाय चुनावों में अनिवार्य मतदान करने के सन्दर्भ में था. जिसमे भारतीय विदेश नीति परिषद् के अध्यछ डाक्टर वेदप्रकाश वैदिक ने लिखा था की वोट देने के लिए बाध्य करने का वास्तविक उदेश्य है वोट देने के लिए प्रेरित करना. वेद जी के इन वाक्यों में मैं आपका ध्यान दो शब्दों पर ले जाना चाहता हू पहला बाध्य और दूसरा प्रेरित करना. ये दोनों शब्द एक दुसरे के विरोधाभासी है. किसी को बाध्य करके प्रेरित करना एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं आती बल्की इसमें फासीवादी की बू आती है .चुनाव आयुग की चुप्पी ने भी इसे हरी झंडी दे दी है. नरेन्द्र मोदी जैसे हिटलरशाही अंदाज रखने वाले मुख्यमंत्री का इस तरह की व्यवस्था को लागु करना एवं  देश के लोगों का इस तरह का ढुलमुल रवैया किसी लोकतान्त्रिक देश की नीव में दीमक लगने के समान है जो एक दीन इस व्यवस्था को धराशायी कर देगी .
शायद नरेन्द्र मोदी संविदान एवं लोकतान्त्रिक व्यवथा पर विस्वास नहीं करते इसीलिए उन्होंने  अपने राज्य के लोगों को जागरूक करने की बजाय उनपर हिटलरराना  फरमान जारी कर दिया . क्या किसी लोकतान्त्रिक देश में इस तरह की बद्यता के लिए कोई जगह होनी चाहिए?
सभी के लिए समानता एवम स्वतंत्रता के लिए संग्घर्ष करने वाले राष्ट्रपिता की जन्मस्थली पर इस प्रकार का बाध्यकारी कानून संविधान की  अवहेलना करना वाला है . मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों , गुजरात दंगे और इस तरह के फरमान को देख कर लगता है की मोदी गुजरात में एकछत्र राज चाहते है . और शायद भविष्य में ऐसा भी हो सकता है की गुजरात से अलगाववादी की आग उठने लगे और एक अलग देश की मांग हो.

Saturday 13 February 2010

मोहब्बत की इबादत

14 फ़रवरी के दिन को प्यार करने वाले एक त्यौहार की तरह मनाते है. एक ऐसा त्यौहार जो किसी जात या धर्म का नहीं बल्की उन युवाओं का है जो जात मजहब के हवाले से उपर उठकर सिर्फ प्रेम को प्राथमिकता देते है. ये पन्तिया सिर्फ उन युवाओ के लिए है जो मोहब्बत  को ही इबादत मानते है............

अरे तड़प के मरने वाले दीवानों
फकत जीने का इल्जान न लो
जीयो तो ऐसे जीयो की दूसरो को जीने का ढंग बतला दो
क्योकि खुदा की खुदाई से मिलती है मोहब्बत
इस जिन्दगी को मोहब्बत पर वार दो
झूठ साबित कर दो मोहब्बत के शेरो को
दीवानगी को भी कामयाब कर दो
एक बार भीर बता दो हीर रांझे की दास्ता
मोहब्बत को फिर से पाक कर दो


Saturday 21 November 2009

जज्बातों का कारवा

ये पन्त्तिया अपने दोस्तों  के साथ 
कुछ के सपने मिले
कुछ के दिल मिल गए
ऐसे ही हम मिलते गए
बन गया एक कारवा
ऐसा है
एक कारवा मेरा भी
              इस कारवा की है अपनी बात
              विस्वाश  की बुनियाद , प्यार की फुहार
              आपसी जज्बातों से जुढ़ा है ये कारवा
              ऐसा है
              एक कारवा मेरा भी
इस  कारवा का है अपना अंदाज
जिसमे देता है हर कोई एक दूजे का साथ
जिधर से गुजरता है ये कारवा
कहते है लोग
ऐसा नहीं कोई कारवा, जैसा है
एक कारवा मेरा भी    
            देते रहे सबका साथ
            पकडे रहे  इक दूजे का हाथ
            कटने  लगी जिन्दगी मौजो में
            जिन्दगी ने हमने कहा
            ऐसा नहीं कोई कारवा, जैसा है
            एक कारवा मेरा भी
जब जिन्दगी हमसे होती है खफा
तब रहती है एक दूजी की दुआ
निकल आते है जिन्दगी के तलातुम से
है दोस्तों में वो बात , जिससे बना ये करवा
जैसा है
एक कारवा मेरा भी  

Saturday 22 August 2009

जिन्ना की जयकार, संग में हाहाकार


'जिन्ना: भारत विभाजन के आईने में' , जसवंत सिंह द्वारा लिखी गई किताब ने संघ की भ्रमित विचारधारा को जनता के सामने लाकर हंगामा बरपा दिया है । कभी लाल कृष्ण आडवानी पकिस्तान में जाकर जिन्ना की जयकार करते है तो कभी जसवंत सिंह किताब लिखकर जिन्ना को नायक और नेहरू , पटेल को खलनायक की पदवी देते है , लेकिन ये इस बात को भूल जाते है की ये जिस विचारधारा के ईटो से संघ की नीव पड़ी है , जिन्ना के जयकार से वो ईट उखड जायेगी । आडवानी जी भाजपा के वरिस्ट नेता होने के कारण एसा बयान देने पर बच निकले लेकिन जसवंत सिंह जो पार्टी के हनुमान कहे जाते है जिन्ना रूपी सागर को नही लाँघ पाए और उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया .जसवंत सिंह ने यह किताब क्या सोच कर लिखा यह समझ से परे है , क्योके आडवानी का उदाहरण उनके सामने था।यह जसवंत सिंह का पार्टी प्रेम था या यक्तिगत सोच। किताब में नेहरू , पटेल समेत कांग्रेस पार्टी के नेताओ को विभाजन में खलनायक की भूमिका में दिखाया गया है और शायद यह आज के कांग्रेश पार्टी पर निशाना हो। ऐसा है तो यह पार्टी प्रेम ही है और अगर यह जसवंत सिंह के यक्तिगत सोच है तो उन्हें पार्टी से अलग हो जाना चाहिये। खैर अब जसवंत सिंह संघ से यही पूछेंगे की.......................
हंगामा है क्यो बरपा , थोडी सी जो लिख दी है

हाय रे……अह्हले वतन

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर 50 प्रतिसत के भारी छूट . 15 अगस्त के मौके पर भेजिये दोस्तों को मैसेज, स्वतंत्रता दिवस पर मालामाल ऑफर ……………. ऐसे अनेक विज्ञापन हमें 15 अगस्त के कुछ दिन पहले ही हमारे दिल और दिमाग को बता देते है की आजादी का दिन हर साल की तरह इस बार भी आ गया . इसका भरपूर फायदा उठाइए और ले जाइये आजादी 50 प्रतिशत छूट पर ……….
महात्मा गांधी, भगत सिंह , राज गुरु , सुखदेव, आजाद , चाचा नेहरू …. न जाने कितने ही स्वतंत्रता सेनानियों ने इस दिन के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी . इस दिन आजाद भारत की इक तस्वीर दुनिया के सामने रखी गई । 15 अगस्त 2009 , आज के दिन के मायने लोगो के लिए बदल चुके है . सरकारी कर्मचारियों के लिए छुट्टी का दिन , नीजी कंपनियों के लिए एक पार्टी मनाने का अवसर , बाज़ार में ख़राब हो गई वस्तुओ को सस्ते दामो में निपटाने का दिन , नेताओं के लिए समाचार पत्रों में हार्दिक बधाई देने का दिन ,कुछ देश भक्ति गाने बजाने का दिन , स्कूली बच्चो को घूमने का दिन ……….. कितनी अलग सोच थी स्वतंत्रता सेनानियों की हमसे, हम फायदे की सोचते है तो स्वतंत्रता सेनानी कायदे की सोचते थे . फिर कैसे हम उनकी सोच को, उनके देखे हुए सपने को आगे ले जायेगे……ले जायेगे जैसे सब हो रहा है ये भी होगा . आख़िर 15 अगस्त के दिन देश भक्ति गाने बजाने वाले, बन्दे मातरम का नारा देने वाले, जय हो का नारा देने वाले ये तो सोचेगे ही। अपने अहले वतन के लिय ऐ ………….

Sunday 7 December 2008

मजहब का किरदार चाहता हू ........

आज मै अपनी एक
पहचान चाहता हू ,
आज मै किसी मजहब का
किरदार चाहता हू ।
मुझे डर है की जात पात के
इस दंगे में मै कही खो न जाऊ,
आज सिर्फ़ नाम से
कोंन किसको जनता है
आज धर्म के पीछे ही
पूरा विश्व भागता है।
हिंदू -मुस्लिम के दंगे में
सिख होने पर बच जाऊँगा,
सिख ईसाई के दंगे में
मुस्लिम होने पर बच जाऊंगा,
लेकिन बना रहा मै इंसान
तो हर दंगे में मै ही मारा जाऊंगा।
आज किस्से करू मै
अहले वतन की बाते ,
सब करते है सिर्फ़
अपने मजहब की बाते।
किसको सुनाऊ मै
प्रेम शौहार्द की बाते,
सब देते है सिर्फ़
मजहबी दंगे की शौगाते।