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Friday 28 May 2010

इक हमराही....


रात दिन चलता है राही मंजिल की चाह में   कभी अकेले कभी साए के साथ में
जब मिल जाता है उसे कोई हमराही
तब लगता है रास्ता नहीं मंजिल है यही
भूल जाता है जिन्दगी की सब तलातुम
खो जाता है इक हसींन सफ़र में
लेकिन वह भूल जाता है की यह भी
हमारी तरह ही इक राही है
उसकी भी कुछ मंजिल है कुछ सपने है
जो उसकी जिन्दगी है उसके अपने है
हम चाह कर भी उसे अपना बना नहीं पाते
वो तो बस कुछ पल का साथी है
लेकिन यही कुछ समय का सफ़र
कभी किसी मुसाफिर के लिए
पूरी जिन्दगी ही बन जाता है
फिर भी वह अकेला ही जिन्दगी की राह में
चलता जाता है क्योकि मुसाफिर है वह
चलना ही है उसका काम है
तुम भी चल रहे हो, मै भी चलूगा....सब चलेंगे