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Friday 4 February 2011

मिस्र में जनतांत्रिक विद्रोह, क्रान्तिकारी कवि पाश की कविता के साथ

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से जिंन्दगी का सफर शुरू होता है
जिनका पसीना और लहू मिट्टी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं
अरब  में इन दिनों एक अपूर्व उथल-पुथल दिखाई दे रही है। ट्यूनीशिया में जन विद्रोह के कारण 23 सालों से सत्ता पर काबिज जिने अल अबेदीन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा। मिस्र, यमन, जार्डन में भी लगातार विरोध प्रदर्शन  हो रहे हैं। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद से तंग आकर ही लोग सड़कों पर उतरे है।
इस लहर की शुरुआत ट्यूनीशिया में 17 दिसंबर को मुहम्मद बाउजिजी नाम के एक बेरोजगार ग्रेजुएट नौजवान को पुलिस द्वारा सब्जी बेचने की इजाजत न देने से हुई। जिसके बाद से पूरे अरब में तानाशाही के विरोध का प्रतीक बन चुका है। ट्यूनीशिया से उड़ी चिंगारी, अब मिस्र में आग लगा चुकी है। 
मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने अक्टूबर 1981 में अनवर सादात की हत्या के बाद ये गद्दी संभाली थी और तीन दशक से लगातार इस पर काबिज है। ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति बेन अली की तरह वे भी अपने बेटे को अपनी कुर्सी सौपने के ख्वाहिशमंद रहे है। मुबारक के नेतृत्व में मिस्र राजनीति रूप से अमेरिकी कठपुतली बन गया है। जिससे इसका आक्रोश लोगों में और ज्यादा है।
मुबारक के खिलाफ भड़की बगावत की अगुवाई करने के इरादे से वतन लौटे अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजंसी  के पूर्व अध्यक्ष और शांति  नोबेल सम्मान से विभूषित मोहम्मद अल बरदेई को नजरबंद कर दिया गया है। मिस्र में भड़का यह जनाक्रोष इस्लामी विद्रोह नहीं है बल्कि महंगाई, बेरोजगारी, निरक्षरता, अमीरी-गरीबी के बीच की बढ़ती खाई और तानाशाही शासन के खिलाफ बेबस जनता की मुखर आवाज है। 1981 से राष्ट्रपित हुस्नी मुबारक का राज  है। वैश्विक वित्तीय संकट के कारण देश में पर्यटन उद्योग, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और स्वेज नहर से होने वाली आय में गिरावट आयी है। लोग काफी संख्या में शिक्षित है लेकिन रोजगार के साधन का अभाव है। मिस्र में 2008 से 2010 तक बेरोजगारी दर 9 से 9.4 फीसदी के बीच है जबकि 2007 में यह 10.30 फीसदी रही थी। 2008 से 2010 तक महंगाई दर 12 से 19 फीसदी के बीच रही।
मुबारक 82 साल के हो गए हैं और उनके सहयोगी पहले से ही इस पर विचार कर रहे थे कि उनके बाद कौन आयेगा। जो नाम सामने आ रहे थे वे मुबारक के बेटे जमाल और खूफीया के प्रमुख जनरल उमर सुलेमान के थे। मुबारक के बाद जनरल उमर सुलेमान मिस्र के सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं। लेकिन मिस्र की जनता इन दोनों से भी नफरत करती है। सत्तारूढ़ पार्टी के बाद देश में एकमात्र संगठित राजनीतिक संगठन व विपक्षी पार्टी ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ है। 1928 में जब मिस्र में सैन्य कब्ज़ा हो रहा था तो उसके विरोध में मुस्लिम ब्रदरहुड अस्तित्व में आया था. जिहादियों से विपरीत मुस्लिम ब्रदरहुड एक रूढ़िवादी नरमपंथी और अहिंसक गुट है। फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि इस जन विरोध के नायक मोहम्मद अल बरदेई होंगे या मुस्लिम ब्रदरहुड। लेकिन यह मिस्र मे एक सकारात्मक बदलाव है।

Thursday 27 January 2011

लोकतंत्र का मुखौटा बनती न्यायपालिका

बोल की लब आजाद हैं तेरे/बोल जबां अब तक तेरी है, तेरा सुतंवा जिस्म है तेरा/बोल कि जां अब तक तेरी है। फैज की इन पंक्तियों में एक जोश  और अभिव्यक्ति की ताकत का अन्दाजा लगता है। एक ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंन्त्रता जिस पर आज सरकार प्रत्यक्षय या परोक्ष रूप से पाबंदियां लगाने का अनवरत प्रयास कर रही है और यह कोशिस उन मासूम आदिवासियों और शोषित वर्ग के खिलाफ कर रही है, जिनको इस अभिव्यक्ति की जरूरत सबसे ज्यादा है न कि उस पूंजीवादी समाज व ग्लोबल गांव के देवताओं को, जो अपनी बात किसी भी तरीके से मनवा लेते है। ऐसे ही कुछ हालात छत्तीसगढ़ में देखने को मिले हैं। जहां पर इन गरीब व शोषित आदिवासियों  की मदद करने वालों को आतंकी घोषित कर देशद्रोह
का आरोप लगा उन्हें जेल में कैद कर दिया जाता है।
रायपुर की अदालत ने 24 दिसम्बर 2010 को आईपीसी की धारा 124ए के तहत विनायक सेन को रास्टद्रोह का दोषी  मान आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर कर दी। डा0 विनायक सेन पर भाकपा माओवादी की मदद करने का आरोप पुलिस ने कथित नक्सली नेता नारायण सान्याल के जेल में मिलने के आधार पर लगाया है। जबकि डा0 विनायक सेन ने मानवाधिकार संस्था पीपुल्स यूनियन फॉर  सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष रहते हुए जेल में बंद आरोपी के स्वास्थ कारणों से भेंट की थी जो कि जेल अधीक्षक की उपस्थिति में होती थी। अभियोजन पक्ष के वकील अदालत में कार्ल मार्क्स के दास कैपिटल को दुनिया की सबसे खतरनाक किताब होने की दलील देते हैं और डा0 विनायक सेन पर राजद्रोह और साजिश  रचने का आरोप लगाते हैं। ऐसी ही कुछ बेतुकी दलील दे देकर उन्हें राजद्रोही घोषित कर दिया जाता है। यह दलीले तो सिर्फ एक बहाना मात्र जान पड़ती है। जो किसी लोकतांत्रिक देश  में न्यायिक प्रक्रिया को लोकतांत्रिक मुखौटा लगाये रखने में मद्द करती है, लेकिन इसकी पीछे की कहानी पूंजीपति वर्ग लिखता है। जिसके अधीन ये मुखौटे काम करते है
बीती चार जनवरी को 61 साल के हुए सेन 30 साल पहले प्रतिस्ठित वेल्लोर मेडिकल कॉलेज से गोल्ड मेडल लेने के बाद आदिवासियों के बीच काम करने के लिए छत्तीसगढ़ आये थे। अमेरिका में दमक भरी नौकरी का विकल्प छोड़कर उन्होंने दिग्गज मजदूर नेता शंकर  गुहा नियोगी के साथ काम करना शुरू  किया। सेन ने बिना कोई सरकारी मदद लिए खदान मजदूरों के सहयोग से दल्लीराझरा में शहीद  अस्पताल की नींव रखी। 1990 में वे रायपुर में अपनी पत्नी इलिना से मिले। यहां उन्होंने अपने गैरसरकारी संगठन रूपातंर की शुरुआत  की। पिछले 18 सालों से यह संस्था ग्रामीणों और आदिवासियों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के साथ-साथ मोबाइल चिकित्सालय भी संचालित कर रही है।
भारत सरकार ने चेतावनी दी है कि माकपा माओवादी या उसके किसी भी अन्य संगठन का यदि कोई समर्थन करता है तो उसे गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून 1967 यूएपीए की धारा 139 के तहत 10 साल की कैद हो सकती है, लेकिन विनायक सेन पर लगाया गया देशद्रोह  का आरोप किस कानून के दायरे में आता है। जिन्हें सिर्फ आदिवासियों व शोसितो  की सेवा के जुर्म में देशद्रोही घोषित  कर दिया गया। छत्तीसगढ़ में डा0 विनायक सेन की आवाज को दबाना इसलिए जरूरी समझा जाता है कि उनकी सच्चाई की आवाज से कही सलवा जुडूम जैसी सरकारी संरक्षण प्राप्त गिरोह को कोई नुकसान न हो। न्यायालय द्वारा इस तरह का फैसला देना न्याय को पुनः परिभाषित  करने पर मजबूर करता है। आखिर न्याय किसके साथ किया जा रहा, सत्ताधीन पूंजीपतियों के साथ या शोषित  आदिवासियों के साथ।
बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधती रॉय को उनके अभिव्यक्तिपूर्ण बयान पर देषद्रोह कर आरोप झेलना पड़ा। इससे पहले अमिताभ बच्चन जब नरेन्द्र मोदी के रहने पर गुजरात के ब्राण्ड अम्बेसडर बनते हैं, रतन टाटा और मुकेष अंबानी से तब कितने लोगों ने सवाल किया जब इन्होंनें गुजरात गरिमा पुरस्कार प्राप्त किया। नरेन्द्र मोदी का नाम आते  ही हमारे सामने 2002 में हुए गुजरात दंगे की भयानक तस्वीर हमारे सामने आ जाती है। जिसमें गर्भवती महिला का पेट फाड़ कर उसमें कपड़ा भर दिया जाता है।  लेकिन शायद  यह मुर्दों का शहर  है। ऐसा शहर  दुष्यन्त कुमार के पक्तियों की याद दिलाते है जिसमें उन्होंने कहा है  ‘‘इस शहर  में कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़किया।’’