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Thursday, 9 December 2010

धारावाहिकों का सफरनामा

उत्तर भारत का मध्यवर्गीय परिवार और उस परिवार में बसेसर राम का चरित्र आज भी लोगों को याद है। धारावाहिक के अन्त में दादा मुनि अशोक कुमार का एक खास अन्दाज में लोगों को सन्देश  देना भला कोई कैसे भूल सकता है। जी हां मैं बात कर रहा हूं ‘हम लोग’ धारावाहिक की जहां से टीवी धारावाहिकों का सिलसिला शुरू  होता है और आज एकता कपूर के ‘क’ अक्षर के धारावाहिकों के सैलाब के रूप में हमारे सामने है।
80 के दशक  में जितने  भी धारावाहिक बने उनमें ज्यादातर  की पटकथा आम  लोगों के जिन्दगी से जुड़ी हुई होती थी। महिलाओं की सामाजिक भूमिका को नए रूप में परिभाषित करती ‘रजनी’, बटंवारे का दर्द बयां करता बुनियाद, दिन में सपने देखता मुंगेरीलाल और जासूसी धारावाहिक करमचंद में पंकज कपूर का डायलॉग ‘शक  करना  मेरा पेशा  है’ वर्षों तक याद किया गया। पंकज कपूर द्वारा अभिनीत ‘मुसद्दीलाल’ के चरित्र ने ‘आफिस-आफिस’ धारावाहिक की सफलता के नये आयाम गढ़े।
सन् 1989 में दूरदर्शन ने दोपहर की सेवा आरम्भ की। इस दौरान गृहणियों को दर्शक मानकर स्वाभिमान, स्वाति, जुनून धारावाहिक प्रसारित किये गये। एक तरह से यह देश  में उदारीकरण का दौर था। मीडिया ने भी समाज के सम्पन्न वर्ग को ध्यान में रखकर धारावाहिकों के निर्माण पर बल दिया। नीरजा  गुलेरी निर्मित धारावाहिक ‘चन्द्रकान्ता’ ने भी सफलता में इतिहास रचा।
सन् 1992 में देश का पहला निजी चैनल जी-टी.वी. दर्शकों को उपलब्द होने लगा। इस पर प्रसारित ‘तारा’ नामक धारावाहिक चर्चा का विषय बना। तारा की भूमिका निभाने वाली नवनीत निशान ने नारी की परम्परागत छवी को तोड़कर नये कलेवर में पेश किया। इसके बाद व्योमकेष बख्शी, तहकीकात, राजा और रैंचो, नीम का पेड़, अलिफ लैला आदि उल्लेखनीय धारावाहिक है।
महाभारत में भीष्म की भूमिका से चर्चित मुकेष खन्ना द्वारा अभिनीत धारावाहिक ‘शक्तिमान’ में देशी सुपरमैन के तड़के को बच्चों ने खूब पसन्द किया। जुलाई 2000 को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ का प्रसारण शुरू  हुआ। इस धारावाहिक को महिलाओं के बीच  काफी सफलता मिली। एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज टटोलते हुए मैट्रो शहर  की महिलाओं पर केन्द्रित धारावाहिक बनायें, जिनमें महिलायें हमेशा  महंगी, डिजाइनर साड़ियों और गहनों से लदी हुई तैयार रहती है। इन धारावाहिकों को सनसनीखेज और रोचक बनाने के लिए एक नकारात्मक चरित्र भी डाला गया। पायल, पल्लवी, देवांषी और कमोलिका के रूप् में टी.वी. की ये खलनायिकाएं अपनी कुटिल मुस्कान, साजिशों और जहरीले संवाद के कारण लोकप्रिय हुई। टी.आर.पी. मद्देनजर चरित्रों को पुनः जीवित करना एकता कपूर के धारावाहिकों की खासियत रही है।
सन् 2006 में धारावाहिकों ने क्षेत्रीय परम्परागत पृष्टभूमि को अपनाया। कहानियों में थोड़ा सा देशी और स्थानीय आकर्षण पैदा करने की कोशिस की गयी। इनमें मायका (पंजाबी), सात फेरे (राजस्थानी), करम अपना-अपना (बंगाली) जैसे इन्डियन धारावाहिक काफी चर्चित रहे।

Thursday, 22 July 2010

बूंद की दस्तक

सुबह आख खुली तो लगा
किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी हो
दरवाजा खोला तो पाया
बारिश की बूंदे अपने साथ
खेलने के लिए बुला रही है
मेरे अल्हड से अलसाये से मन को
मानो ख़ुशी का इक पयाम सा मिल गया हो
मै भी उनके साथ हो लिया
कभी उन्हें  अपनी हथेलियों पर बसा लेता
कभी वो मेरी पलकों पर आकर
मेरी पलकों को बंद करने पर अमादा होती
नीचे गिरती हुई बूंदों को देखा
लगा जैसे आसमान से सरे तारे
जमी  पर आकर टिमटिमाने लगे हो
उनमे उठती हुई छोटी छोटी लहरे
एक दूसरे से मिलने के लिए बेताब हो
फूलो पर पड़ी बूंदों को देखकर ऐसा लगा
मनो किसी सुहागन ने बिंदी लगायी  हो
आसमान की तरफ आखे उठा कर देखा
कितनी दूर से चली आ रही है मेरे पास
शायद ये मेरे लिए आयीं है
साथ में कुछ संदेसा भी लायी है
एक बूंद ने मेरे कान में इठला के कहा
मुझे संभाल कर रखना अपने पास
वरना अगले बरस हम न आयेगे

Friday, 28 May 2010

इक हमराही....


रात दिन चलता है राही मंजिल की चाह में   कभी अकेले कभी साए के साथ में
जब मिल जाता है उसे कोई हमराही
तब लगता है रास्ता नहीं मंजिल है यही
भूल जाता है जिन्दगी की सब तलातुम
खो जाता है इक हसींन सफ़र में
लेकिन वह भूल जाता है की यह भी
हमारी तरह ही इक राही है
उसकी भी कुछ मंजिल है कुछ सपने है
जो उसकी जिन्दगी है उसके अपने है
हम चाह कर भी उसे अपना बना नहीं पाते
वो तो बस कुछ पल का साथी है
लेकिन यही कुछ समय का सफ़र
कभी किसी मुसाफिर के लिए
पूरी जिन्दगी ही बन जाता है
फिर भी वह अकेला ही जिन्दगी की राह में
चलता जाता है क्योकि मुसाफिर है वह
चलना ही है उसका काम है
तुम भी चल रहे हो, मै भी चलूगा....सब चलेंगे

Thursday, 18 February 2010

लोकतंत्र पर मोदी की मार

रोज की तरह अखबार पड़ते हुए मेरी नजर एक लेख पर गई. यह लेख नरेन्द्र मोदी द्वारा गुजरात के स्थाई निकाय चुनावों में अनिवार्य मतदान करने के सन्दर्भ में था. जिसमे भारतीय विदेश नीति परिषद् के अध्यछ डाक्टर वेदप्रकाश वैदिक ने लिखा था की वोट देने के लिए बाध्य करने का वास्तविक उदेश्य है वोट देने के लिए प्रेरित करना. वेद जी के इन वाक्यों में मैं आपका ध्यान दो शब्दों पर ले जाना चाहता हू पहला बाध्य और दूसरा प्रेरित करना. ये दोनों शब्द एक दुसरे के विरोधाभासी है. किसी को बाध्य करके प्रेरित करना एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं आती बल्की इसमें फासीवादी की बू आती है .चुनाव आयुग की चुप्पी ने भी इसे हरी झंडी दे दी है. नरेन्द्र मोदी जैसे हिटलरशाही अंदाज रखने वाले मुख्यमंत्री का इस तरह की व्यवस्था को लागु करना एवं  देश के लोगों का इस तरह का ढुलमुल रवैया किसी लोकतान्त्रिक देश की नीव में दीमक लगने के समान है जो एक दीन इस व्यवस्था को धराशायी कर देगी .
शायद नरेन्द्र मोदी संविदान एवं लोकतान्त्रिक व्यवथा पर विस्वास नहीं करते इसीलिए उन्होंने  अपने राज्य के लोगों को जागरूक करने की बजाय उनपर हिटलरराना  फरमान जारी कर दिया . क्या किसी लोकतान्त्रिक देश में इस तरह की बद्यता के लिए कोई जगह होनी चाहिए?
सभी के लिए समानता एवम स्वतंत्रता के लिए संग्घर्ष करने वाले राष्ट्रपिता की जन्मस्थली पर इस प्रकार का बाध्यकारी कानून संविधान की  अवहेलना करना वाला है . मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों , गुजरात दंगे और इस तरह के फरमान को देख कर लगता है की मोदी गुजरात में एकछत्र राज चाहते है . और शायद भविष्य में ऐसा भी हो सकता है की गुजरात से अलगाववादी की आग उठने लगे और एक अलग देश की मांग हो.

Saturday, 13 February 2010

मोहब्बत की इबादत

14 फ़रवरी के दिन को प्यार करने वाले एक त्यौहार की तरह मनाते है. एक ऐसा त्यौहार जो किसी जात या धर्म का नहीं बल्की उन युवाओं का है जो जात मजहब के हवाले से उपर उठकर सिर्फ प्रेम को प्राथमिकता देते है. ये पन्तिया सिर्फ उन युवाओ के लिए है जो मोहब्बत  को ही इबादत मानते है............

अरे तड़प के मरने वाले दीवानों
फकत जीने का इल्जान न लो
जीयो तो ऐसे जीयो की दूसरो को जीने का ढंग बतला दो
क्योकि खुदा की खुदाई से मिलती है मोहब्बत
इस जिन्दगी को मोहब्बत पर वार दो
झूठ साबित कर दो मोहब्बत के शेरो को
दीवानगी को भी कामयाब कर दो
एक बार भीर बता दो हीर रांझे की दास्ता
मोहब्बत को फिर से पाक कर दो